मिथक की भाँति प्रतीकों में भी सायुज्य, सारूप्य और सादृश्य की एक स्वायत्त, स्वयंसिद्ध, स्वयंप्रकाश व्यवस्था होनी चाहिए: प्रतीक अपने-आप में एक स्वत: प्रमाण दुनिया होता है।
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(14) मुिक्त पर्दाियनी शिक्तः सामीप्य मुिक्त, सारूप्य मुिक्त, सायुज्य मुिक्त, सालोक्य मुिक्त-इन चारों मुिक्तयों मंे से िजतनी तुम्हारी यातर्ा है वह मुिक्त आपके िलए खास आरिक्षत हो जायेगी।
33.
विष्णु-मन्त्र की उपासना करने वाले पुरुष अपने मानव शरीर का त्याग करने के पश्चात जन्म, मृत्यु एवं जरा से रहित दिव्य रूप धारण करे श्रीहरि का सारूप्य पाकर उनकी सेवा में संलग्न हो जाते हैं।
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इसीप्रकार केवल सारूप्य (रूप या आकार साम्य) और केवल साधर्म्य (गुण याक्रिया साम्य) के आधार पर की गई उपमान योजना, चाहे किसी वर्ण्य-वस्तु कीआकृति या उसके गुण की उत्कर्ष रूप में व्यंजना करने में समर्थ हो, किन्तुवह भी एकांगी ही कही जायेगी.
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देवो भूत्वा देवान् यजेत् ' स्वयं देवता जैसा बनकर ही देवता की पूजा करें, अत: जब मैं आपका पूजन करता हूँ तो पिफर मैं भी आपके समान रूप वाला होता हूँ, इस केवल आपकी पूजा मात्रा से मैं आपका सारूप्य प्राप्त कर लेता हूँ और हे शिव!
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वैष्णवों के वेदान्त ग्रन्थों में भी यही बतलाया गया है, कि ईश्वरानुग्रह से भत्तफ को मोक्ष प्राप्त होता है, जिसका स्वरूप है उस आनन्दात्मक दिव्य लोक का भोग, यही परममोक्ष माना जाता है यह भी चार प्रकार का होता है, सारूप्य, सामीप्य, सालोक्य और सायुज्य।
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हो जाता है, क्योंकि यह नियम है ‘देवो भूत्वा देवान् यजेत्' स्वयं देवता जैसा बनकर ही देवता की पूजा करें, अत: जब मैं आपका पूजन करता हूँ तो पिफर मैं भी आपके समान रूप वाला होता हूँ, इस केवल आपकी पूजा मात्रा से मैं आपका सारूप्य प्राप्त कर लेता हूँ और हे शिव!
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* भगवान् के नित्यधाममें निवास करना ‘ सालोक्य ', भगवान् के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना ‘ सार्ष्टि ', भगवान् की नित्य समीपता प्राप्त करना ‘ सामीप्य ', भगवान् का-सा रूप प्राप्त करना ‘ सारूप्य ' तथा भगवान् के विग्रहमें समा जाना अर्थात् उनमें ही मिल जाना ‘ सायुज्य ' मुक्ति कहलाती है ।
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निम्बार्क का विचार है कि ' अहं ' तत्व को परमात्मरूप से श्रवण करने पर सारूप्य, महत्तत्व को परमात्मरूप से दर्शन करने से सालौक्य, मनस्तत्व को परमात्मरूप से मनन करने से सामीप्य तथा जीवतत्व को परमात्मरूप से निदिध्यासन करने से सार्ष्टि (अर्थात् परमात्मा के समान सुख और ऐश्वर्य रूप) मुक्ति मिलती है।
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निज सायुज्य पदवी-मुक्ति चार तरह की होती है: १. सारूप्य (वही रूप प्राप्त कर लेना, जैसे जटायु की मुक्ति-गिद्ध देंह तजि धरि हरि रूपा), २. सामीप्य (समीप रहना), ३. सालोक्य (वह लोक प्राप्त कर लेना) और ४. सायुज्य (वही हो जाना-' तत्वमसि ' वाला भाव)