जो अभिधेय है, जो अर्थ वाक् में है ही, उसकी प्रतिपत्ति की प्रार्थना कवि नहीं करता! अभिधेयार्थयुक्त शब्द तो वह मिट्टी, वह कच्चा माल है जिससे वह रचना करता है ;
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लक्षणा (सं.) [सं-स्त्री.] (काव्यशास्त्र) तीन शब्द शक्तियों-अभिधा, लक्षणा और व्यंजना में से दूसरी शब्द शक्ति जो अभिधेय से भिन्न परंतु उसी से संबंधित दूसरा अर्थ प्रकट करती है ; अभिप्रेत अर्थ देने वाली शब्द शक्ति।
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वे ही वास्तव में समस्त पुरुषो से उत्तम होने के कारण “ पुरुष ” शब्द के अभिधेय है-ब्रिह्दारंयक उपनिषद (३ / ७ / २ ३) ब्रह्म के विषय में कल्पना केवल उपासना की सुगमता के लिए की जाती है दूसरा कोई उपाय नहीं है-ब्रह्मसूत् र.
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भगवान् ही उसको स् वर्ग भेजें या मृत् युलोक में फल दें तो कर्म, ज्ञान, भक्ति या कोई भी तपश् चर्या आदि जो भी साधन हैं उनका फल भी भक्ति ही देती है अतएव एकमात्र भक्ति ही अभिधेय है, और प्रयोजन तत् व भी आपको बताया गया कि वो प्रयोजन है-प्रेम-महाधन।
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अभिधेय में आप लोगों को बताया गया कि यद्यपि शास् त्रों वेदों में कर्म, योग, ज्ञान तपश् चर्या अनेक साधनों का वर्णन है, उनके भी नाम अभिधेय से पुकारे जाते हैं लेकिन वे वास् तविक अभिधेय नहीं हैं, वास् तविक साधन नहीं हैं क् योंकि किसी भी साधन से न मायानिवृत्ति हो सकती है और न परमानन् द प्राप्ति हो सकती है।
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अभिधेय में आप लोगों को बताया गया कि यद्यपि शास् त्रों वेदों में कर्म, योग, ज्ञान तपश् चर्या अनेक साधनों का वर्णन है, उनके भी नाम अभिधेय से पुकारे जाते हैं लेकिन वे वास् तविक अभिधेय नहीं हैं, वास् तविक साधन नहीं हैं क् योंकि किसी भी साधन से न मायानिवृत्ति हो सकती है और न परमानन् द प्राप्ति हो सकती है।
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अभिधेय में आप लोगों को बताया गया कि यद्यपि शास् त्रों वेदों में कर्म, योग, ज्ञान तपश् चर्या अनेक साधनों का वर्णन है, उनके भी नाम अभिधेय से पुकारे जाते हैं लेकिन वे वास् तविक अभिधेय नहीं हैं, वास् तविक साधन नहीं हैं क् योंकि किसी भी साधन से न मायानिवृत्ति हो सकती है और न परमानन् द प्राप्ति हो सकती है।
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समस् त शास् त्रों वेदों में श्रीकृष् ण की प्राप्ति का ही उपाय बताया गया है, अतएव इस आत् मा का सम् बन् ध केवल श्रीकृष् ण से ही है और वह सम् बन् ध केवल जीव का नित् य दासत् व का है इसके बाद अभिधेय भी आपको समझाया गया अर्थात् किस सधन से वह साध् य प्राप् त होगा? वह उपाय क् या है?
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यदि उसे सर्वथा (स्व और पर दोनों से) अभावरूप ही स्वीकार किया जाये, तो विधि (सद्भाव) रूप में होनेवाले ज्ञान और वचन वे समस्त व्यवहार लुप्त हो जाएंगे और उस स्थिति में समस्त जगत् अन्ध (ज्ञान के अभाव में अज्ञानी) तथा मूक (वचन के अभाव में गूँगा) हो जायेगा, क्योंकि (शून्य) वाद में न ज्ञेय है, न उसे जानने वाला ज्ञान है, न अभिधेय है और न उसे कहने वाला वचन है।