पत्र स्वरस-10 से 20 मिली लीटर नित्य छाल का चूर्ण यदि त्वक् के अंदरुनी भाग का हो तो विशेष लाभकारी होता है ।
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मन के बाद पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, रसना या जीभ और त्वक् या त्वचा) और फिर पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, जननेन्द्रिय, गुदा) विकसित होती हैं।
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ये इन्द्रियाँ इस प्रकार हंै-१. श्रोत, २. त्वक्, ३. चक्षु, ४. रसन एवं ५. घ्राण, ये पाँच ज्ञानेन्दि्रयाँ हैं ।
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जिससे उसके विभिन्न भागों (पत्र, मूल, त्वक्, पुष्प, फल) की रासायनिक रचना एवं द्रव्यगुण परक प्रभाव को समझा एवं उपयोग में लाया जा सके।
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इसी प्रकार अन्य इन्द्रिया जैसे श्रोत्र घ्राण त्वक् और रसना ये भी क्रमशः शब्द गन्ध स्पर्श तथा रस के प्रत्यक्ष मे करण है ये ज्ञान के बाह्य करण है ।
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आध्यात्मिक काल-त्वक्, मांस, रक्त, मज्जा अस्थि और शुक्र नामक छ: कोशों से निर्मित इस शरीर में परमेश्वर की स्वातन्त्र्य शक्ति आत्मा के रूप में विराजमान है।
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उनमें पाँचों के सात्त्विक अंशों या सत्त्व गुणों से क्रमश: श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना, घ्राण ये पाँच ज्ञानेंद्रियाँ बनती हैं, जिनसे शब्दादि पदार्थों के ज्ञान होते हैं।
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तुलसी संभवं सर्व पावनं मृत्तिकादिकम्H अर्थात पत्र, पुष्प, फल, मूल, त्वक्, काण्ड एवं सम्पूर्ण तुलसी पंचांग तथा पौधे के तल की मिट्टी सभी सेवनीय व पवित्र माने गए हैं।
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मन के बाद पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, रसना या जीभ और त्वक् या त्वचा) और फिर पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाणी, हाथ, पैर, जननेन्द्रिय, गुदा) विकसित होती हैं।
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ऐसे ही त्वक् और वायु, चक्षु-तेज, रसन-जल एवं घ्राण-पृथवी के सम्बन्धों में संयम करने से यथाक्रम दिव्य त्वक्, दिव्य चक्षु, दिव्य रसन एवं दिव्य घ्राण की सिद्धि होती है।