' ' गैब से मुझको यह निंदा आई ' इत् यादि एक नहीं लाखों उदाहरणों से सिद्ध है कि एशिया के ग्रंथकार मात्र अंत-करण को आकस्मातिक, गति को आकाशबाणी कहते हैं।
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यह पुकार है उस मानव को, आग में जल ख़ुद लौह बना जो जग निर्माण की नीव को लेकर, वर्षों तक रहा अटल खड़ा जो क्यों क्षीण हो रही है आज, वह अंत-करण में बहती ऊर्जा?