अथर्वन महाभाष्य में लिखा है क़ि-“ द्रत्यान्शु परिपाकेनलाब्धो यत त्रीतियाँशतः. पारदम तत्द्वाविन्शत कज्जलमभिमज्जये त.
3.
बाद में महर्षि भृगु के आदेश पर अथर्वन ऋचीक ने इस पत्थर का ज्ञान शुक्राचार्य को भी करा दिया था।
4.
कहते है की महर्षि अथर्वन ऋचीक महर्षि वशिष्ठ से कुपित होकर तथा उनके क्रिया कलाप को मूल आर्य आचार संहिता के विरुद्ध मानते हुए भगवान शंकर से वरदान में इस पत्थर को मांगा था।
परिभाषा
अथर्ववेद का एक मंत्र:"वैद्यजी अथर्व पढ़ रहे हैं" पर्याय: अथर्व,