यदि लक्ष्य भाषा में रूपात्मक तौर पर ये अनुरूप लक्षण नहीं हैं तो वह मूल पाठ अथवा इकाई अपेक्षाकृत अनुवादनीय नहीं होती है।
3.
अनुवाद की दृष्टि से स्त्रोत भाषा में प्रस्तुत मूल पाठ का कौन-सा पक्ष (व्याकरण परक, सम्प्रेषण परक, प्रयोजनमूलक, शैलीगत आदि) किस सीमा तक अनुवादनीय हो सकता है या नहीं हो सकता है, इस दृष्टि से विचार जरूरी है।
4.
साहित्यिक पाठ में मूल भाषा समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक व भाषागत प्राकार्यात्मक सम्प्रेषणपरक विभेद और अनेक अन्य स्तर इतने गहरे सम्बद्ध होते हैं कि इनमें से कुछ अनुवादनीय होते ही नहीं, कुछ आंशिक रूप से ही अनुवादनीय हो पाते है और कुछ मात्र शाब्दिक स्तर पर।
5.
साहित्यिक पाठ में मूल भाषा समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक व भाषागत प्राकार्यात्मक सम्प्रेषणपरक विभेद और अनेक अन्य स्तर इतने गहरे सम्बद्ध होते हैं कि इनमें से कुछ अनुवादनीय होते ही नहीं, कुछ आंशिक रूप से ही अनुवादनीय हो पाते है और कुछ मात्र शाब्दिक स्तर पर।
6.
इसी के कारण अनुवाद की प्रक्रिया भी प्रभावित होती है और जिससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अनुवाद की दृष्टि से भाषा (1) में प्रस्तुत मूल पाठ का कौन-सा पक्ष (व्याकरण परक, सम्प्रेषण परक, प्रयोजनमूलक, शैलीगत आदि) किस सीमा तक अनुवादनीय हो सकता है या नहीं हो सकता।