शायद कोई बलिदान हमारे स्वार्थी हृदय और लालची आँखों की अशमनीय तृष्णा को शर्मसार कर सके..
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हालांकि मुझे लगता है फ़िल्म शुरुआत मे जितनी मजबूती और ' सैटायरिकल' तरीके से मंदी के दौर मे एक ओर नायक के व्यावसायिक दायित्वों के बहाने कारपोरेट वर्ल्ड की निष्ठुरता और दूसरी ओर 'फ़्लाइंग-माइल्स' के बहाने नायक की अपनी अशमनीय लालसाओं को पेश करती है...मध्यांतर आते आते फ़िल्म रिलेशनशिप की गुत्थियों मे उलझ कर अपने प्रमख पक्ष को नजरंदाज कर देती..
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हालांकि मुझे लगता है फ़िल्म शुरुआत मे जितनी मजबूती और ' सैटायरिकल' तरीके से मंदी के दौर मे एक ओर नायक के व्यावसायिक दायित्वों के बहाने कारपोरेट वर्ल्ड की निष्ठुरता और दूसरी ओर 'फ़्लाइंग-माइल्स' के बहाने नायक की अपनी अशमनीय लालसाओं को पेश करती है…मध्यांतर आते आते फ़िल्म रिलेशनशिप की गुत्थियों मे उलझ कर अपने प्रमख पक्ष को नजरंदाज कर देती..