जिसके हृदय में उपमा रहित और उपाधिरहित (विशुद्ध) रामभक्ति
2.
तो इस चैतन्य को ऋषि कहता है: ‘ ऐसे शुद्धतम निराकार, उपाधिरहित चैतन्य की जब प्रतीति होती है, तब उसे त्वम्, तू कहा जाता है।
3.
‘ यह जो निराकार है, यह जो सत्य है, ज्ञान है, अनंत है, आनंद रूप है, उपाधिरहित है, शुद्ध सोने जैसा ज्ञान और चैतन्य है, ऐसा जब चैतन्य का भास होता है ', तब..