मानसिक परिघटना एक अविभाज्य परावर्ती क्रिया में उत्पन्न होती है, उसका उत्पाद बनती है, किंतु इसके साथ ही वह एक ऐसा कारक भी होती है, जिसका कोई कार्यमूलक परिणाम (क्रिया, गति) अवश्य निकलता है ।
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उन्होंने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि सचेतन और अचेतन जीवन की सभी क्रियाएं अपने मूल की दृष्टि से प्रतिवर्त हैं, परंतु मानसिक क्रियाएं एक अविभाज्य परावर्ती क्रिया के रूप में आगे बढ़ती हैं, और किसी कार्यमूलक परिणाम का कारक बनती हैं।