दृष्टकूट वाक्य
उच्चारण: [ derisetkut ]
उदाहरण वाक्य
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- हरि शब्द को भी दृष्टकूट साहित्यनिर्माताआें ने अपनाया।
- अज्ञात) ; दृष्टकूट पद सूरदास कृत मुंबैउल उलूभ प्रेस, मथुरा, सं.
- दृष्टकूट शब्दार्थ का इतिहास उसके अंशविशेष कूट को लेकर पुराना है।
- आगे चलकर ये सूरकृत दृष्टकूट पद मुद्रित होकर प्रकाशित भी हुए;
- संस्कृत काव्यसिद्धांतों से विभूषित हिंदी रीतिकाल में भी दृष्टकूट ' साहित्य समुन्नत हुआ।
- सूरदास जी का दृष्टकूट (टीका, सरदार कवि, काशी, नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ सं.
- के आसपास) उपर्युक्त तीन दृष्टकूट वर्गों के अतिरिक्त दो तीन पदों (सं.
- संस्कृत साहित्य में दृष्ट वा दृष्टकूट साहित्य की कोई पृथक् रचना पुस्तकरूप में नहीं मिलती।
- सूरशतक पूर्वार्ध (टीका बालकृष्णदास, काशी, खड्गविलास प्रेस, पटना १८८९ ई.); श्री सूरदास जी का दृष्टकूट (टीका भारतेंदु बा.
- दृष्टकूट साहित्यरचना के मधुर उपासकों ने इस काव्य के सृजन में संस्कृत के अनेक शब्दों को अपना सहचर बनाकर उनसे मनचाहे अर्थों का काम लिया है।
- दृष्टकूट शब्द, संस्कृत के “दृष्ट' तथा ”कूट' शब्दों से बना है, जिसका साहित्यिक अर्थ है जो सहज रूप से देखने सुनने पर समझा न जा सके।
- अज्ञात साहित्यप्रेमियों द्वारा संकलित श्री सूरदास जी के दृष्टकूट पद हस्तलिखित रूप में सूर के कूटपद, सूरदास जी के दृष्टकूट, सूरदास के कूटपद नामों से मिलते हैं।
- -८०, ८८, ८९: साहित्यलहरी: सरदार कवि) के संबंध में “उर्मिल द्वावर्ण' और ”वारावर्त' दृष्टकूट भेदों का उल्लेख किया है, किंतु वहाँ आपने दोनों कूटभेदों की कोई परिभाषा नहीं दी जिससे इनकी विशेषता जानी जा सके।
- हस्तलिखित रूप में ' व्याहलों ' के नाम से राधा-कृष्ण विवाहसम्बन्धीप्रसंग, ' सूरसागर सार ' नाम से रामकथा और रामभक्ति सम्बन्धी प्रसंग तथा ' सूरदास जी के दृष्टकूट ' नाम से कूट-शैली के पद पृथक् ग्रन्थों में मिले हैं।
- जैसे, दृष्टकूट पद (आगरा सन् १८६२ ई., होजी प्रेस), दृष्टकूट, सरदार कवि की टीका सहित (काशी, बनारस लाइट प्रेस, सं. १८६९ वि.,); सूरशतक, सूर के सौ कूटों की टीका (बालकृष्णदास, काशी, बनारस लाइट प्रेस, सं. १८६२ ई.); सूरदास जी का दृष्टकूट पद (हुसेनी प्रेस, दिल्ली, सं.
- जैसे, दृष्टकूट पद (आगरा सन् १८६२ ई., होजी प्रेस), दृष्टकूट, सरदार कवि की टीका सहित (काशी, बनारस लाइट प्रेस, सं. १८६९ वि.,); सूरशतक, सूर के सौ कूटों की टीका (बालकृष्णदास, काशी, बनारस लाइट प्रेस, सं. १८६२ ई.); सूरदास जी का दृष्टकूट पद (हुसेनी प्रेस, दिल्ली, सं.
- पुरालोकनमस्कृत इतिहासग्रंथ महाभारत लिखते समय जिस प्रकार व्यासवाणी को समझ बूझकर लिखने में कुछ क्षण विरमना पड़ता था, उसी भाँति श्री सूर कृत दृष्टिकूट कीर्तनरचना में गाई गई “एतेचांश कला पुंस: कृष्णस्तुभगवान्स्वयं' (श्रीमद्भागवत १।३।२८) की संयोगवियोगात्मक भाँति भाँति की लोकपावन लीलाआें के रसमय गूढ़ रहस्यों को समझने में कुछ जूझना पड़ता है, इस दृष्टकूट रचनाशैली को हिंदी साहित्य में गो.
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