मंदिर में राजित नाजीवलोचन को नमनकर निहारकर निहाल होते हैं-अवध निवासी की तरह, तुलसी कर तरह-अवधेस के द्वारे सकारें गई सुत गोद कै भषति लै निकसे अवलोकि
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अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है के प्रणेता को नमनकर अब मैं जगमग नगरों से दूर सुरम्य प्रकृति की मुक्त गोद में बसे भोले-भाले अपने किसानों के उस प्यारे गांव के उस नये स्वाद-गंध पर कुछ लिखने चला हूँ, तो क्यों वह अनजाने विकृतियों का नरकनामा बन जाता है?