चाक तन्हाई करे है मेरे दिल को जब उसी नाशुक्र को लाने से भला क्या होगा बहुत बढ़िया-
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पूछा जाएगा कि ये चीज़ें किस काम में ख़र्च कीं, इनका क्या शुक्र अदा किया और नाशुक्र पर अज़ाब किया जायेगा.
5.
पूरी कविता पढ़कर पोस्ट की थी ; फिर भी....! इन नाशुक्र आँखों का क्या करूँ? ध्यान दिलाने का शुक्रिया! अब दुरुस्त कर दिया है!
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चाक तन्हाई करे है मेरे दिल को जब उसी नाशुक्र को लाने से भला क्या होगा दुनियादारी में तो वह अब भी हमसे आगे है उसको कुछ और सिखाने से भला क्या होगा?
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वे जल-समाधि पा गए जो उम्र भर जलते रहे, नाशुक्र आँखें आज फिर क्यों इस तरह बहने लगी हैं आक्रोश है इस ग़ज़ल में... जमाने से क्षोभ है.... बहुत कमाल का लिखा है..
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वर्माजी, 'प्रण' ही था, 'प्रण' ही होना चाहिए था... 'प्राण' हो गया... पूरी कविता पढ़कर पोस्ट की थी; फिर भी....! इन नाशुक्र आँखों का क्या करूँ? ध्यान दिलाने का शुक्रिया!अब दुरुस्त कर दिया है!साभार-आ.
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राहे बर्बादी को तो ख़ुद ही चुना था मैनें उसपे अब अश्क बहाने से भला क्या होगा चाक तन्हाई करे है मेरे दिल को जब उसी नाशुक्र को लाने से भला क्या होगा दुनियादारी में तो वह अब भी हमसे आगे है उसको कुछ और सिखाने से भला क्या होगा?..बहुत खूब, अनुराग भाई।
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ऐ लोगों! हम एक ऐसे कज रफ़्तार ज़माने (टेढ़ी चाल वाले युग) और नाशुक्र गुज़ार (कृतध्र) दुनिया में पैदा हुए हैं कि जिस में नेकू कार (सदाचारी) को खताकार (अपराधी) समझा जाता है और ज़ालिम (अत्याचारी) अपनी सरकशी (अवज्ञा) में बढ़ता ही जाता है।