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न्यायमंजरी वाक्य

उच्चारण: [ neyaayemnejri ]
उदाहरण वाक्यमोबाइल
  • न्यायमंजरी में जयन्तभट्ट ने न्यायशास्त्र को विद्यास्थान कहा है।
  • न्यायमंजरी में जयन्त ने भी यह कहा कि स्वरूपत: आत्मा जड़ या अचेतन है।
  • किंतु न्यायमंजरी में कहा गया है कि असत्कार्यवाद के अनुसार असत् की उत्पत्ति नहीं मानी जाती।
  • न्यायमंजरी में लिखा है कि दुःख, द्वेष और संस्कार को छोड़ और सब आत्मा के गुण ईश्वर में हैं।
  • इसके विपरीत न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, तात्पर्यटीका तथा न्यायमंजरी आदि विख्यात न्यायशास्त्रीय ग्रंथों में अक्षपाद इन सूत्रों के लेखक माने गए हैं।
  • ऐसा महसूस होता है कि व्याप्ति का यह स्वरूप वाचस्पति के गुरु त्रिलोचन ने अपनी ' न्यायमंजरी ' में प्रकट किया था।
  • इसके विपरीत न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, तात्पर्यटीका तथा न्यायमंजरी आदि विख्यात न्यायशास्त्रीय ग्रंथों में अक्षपाद इन सूत्रों के लेखक माने गए हैं।
  • जयन्तभट्ट ने अपनी न्यायमंजरी [93] में कहा है कि उपर्युक्त सूत्र में व्यक्त पद से कपिल मुनि के स्वीकृत अव्यक्त कारण का निषेध करके परमाणुओं में शरीर आदि कार्य की कारणता कही गयी है।
  • न्यायमंजरी में पदों में दो प्रकार की शक्ति मानी गई है-प्रथम अभिधात्री शक्ति जिससे एक एक पद अपने अपने अर्थ का बोध कराता है और दूसरी तात्पर्य शक्ति जिससे कई पदों के संबंध का अर्थ सूचित होता है।
  • जयंतभट्ट ने अपनी ' न्यायमंजरी ' में दिखाया है कि प्रत्यक्ष प्रमाण के इस गौतमकृत लक्षण में ' खंडित न होने वाला निश्चयात्मक ज्ञान ' [12] यह वर्णन सब प्रमाणों को समान रूप से लागू होता है।
  • आचार्य उदयवीर शास्त्री ने जयन्तभट्ट की न्यायमंजरी में ' यत्तु राजा व्याख्यातवान्-प्रतिराभिमुख्ये वर्तते ' तथा युक्तिदीपिका में ' प्रतिना तु अभिमुख्यं '-के साम्य तथा वाचस्पति मिश्र द्वारा ' तथा च राजवार्तिकं ' (72 वीं कारिका पर तत्त्वकौमुदी) कहकर युक्तिदीपिका के आरंभ में दिए श्लोकों में से 10-12 श्लोकों को उद्धृत करते देख युक्तिदीपिकाकार का नाम ' राजा ' संभावित माना है।

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