बुद्बुद के रूप में ही सही, यहाँ हमें नवीन काव्य-धारा का स्वप्न-भंग स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ता है।
2.
नेत्र की रचना: अपने अंगूठे मध्य भाग के बराबर जो अंगुल है, उन दो अंगुल के बराबर नेत्र बुद्बुद के अंतः प्रविष्ट नेत्र हैं।
3.
प्रसव की वेदना की ही तरह विचारों की धारा का उद्भव भी एक बुद्बुद की तरह अचानक उठता है, शनैः-शनैः उभरता है, तीखा होता जाता है, फिर मद्धिम पड़ता है और अकस्मात् बन्द हो जाता है.