भी करने के लिए अंग का व्यवच्छेद इंगित करना चाहते हैं.
2.
अत: प्राचीन योग दर्शन और पतंजलि का योग दर्शन सर्वथा अलग अलग है, यह कहना तथा उन दर्शनों में व्यवच्छेद मानना तर्क संगत नहीं हो सकता।
3.
स्थायी साहित्य में परिगणित होनेवाली समालोचना जिसमें किसी कवि की अंतर्वृत्तिा का सूक्ष्म व्यवच्छेद होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखाई जाती हैं, बहुत ही कम दिखाई पड़ी।
4.
जहाँ प्रतियोगी, व्यवच्छेद और संख्या भ्रम होता है वहाँ द्वैत और नाना त्व होता है जैसे चेतन का प्रतियोगी जड़ और जड़ का प्रतियोगी चेतन है, व्यवहार अर्थात् परिच्छिन्न वह है जैसे घट में आकाश होता है और संख्या यह है कि जैसे जीव और ईश्वर ।