मसि कागज छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ ' के उनके कथन से अनुमान लगाया जाता है कि उन्होंने अपनी किसी रचना का स्वलेखन नहीं किया था।
3.
दलित लेखन के उभार से दलित लेखक सवर्ण लेखकों के दलित-लेखन को ‘ सहानुभूतिपरक ‘ लेखन मानते हैं और स्वलेखन को ‘ प्रामाणिक लेखन ‘ । जबकि ‘ भोगा हुआ यथार्थ ‘ और ‘ सहानुभूतिपरक यथार्थ ‘ के मूल में संवेदना ही होती है ।
4.
वे तो सिर्फ इतने भर से स्वलेखन को सफल मान बैठते, जब उनके लेखन-प्रयास से किसी एक के हृदय में भी आग लग जाती और वह मशाल लेकर निकल पड़ता चतुर्दिक प्रकाश फैलाने हेतु | उनके इस प्रयास में उनका व्यष्टि रूप पूरी तरह समष्टि रूप में दिखाई पड़ता है-मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।