बाद में सन १२ डिसेंबर १९७६ को भारत सरकार के प्रयत्नों के कारण उनके पार्थिव शरीर लिये हुए शवपेटी को भारत लाया गया, और जीते जी तो नही, मगर फ़ांसी के कई सालों के बाद शहीद मदनलाल धिंग्रा के पार्थिव शरीर को अपने स्वतंत्र देश की मिट्टी नसीब हुई.
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बाद में सन १ २ डिसेंबर १ ९ ७ ६ को भारत सरकार के प्रयत्नों के कारण उनके पार्थिव शरीर लिये हुए शवपेटी को भारत लाया गया, और जीते जी तो नही, मगर फ़ांसी के कई सालों के बाद शहीद मदनलाल धिंग्रा के पार्थिव शरीर को अपने स्वतंत्र देश की मिट्टी नसीब हु ई.
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यह बड़ी शोकन्तिका है की देश पर मर मिटने वालों का कोई मोल नही … अगर सरकार शहीदों के शव लाने के लिये कचरे के ट्रक का इस्तेमाल कर सकती है, कारगिल के शहीदों की शवपेटी में भ्रष्टाचार कर सकती है, तो … इनसे इंसाफ की क्या अपेक्षा करे … आजादी के बाद जो हशरा क्रांतिकारियों का हुआ, वोही हाल शहीदों का हो रहा है.
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खड़ी चट्टानों पर या झूलती कब्रों पर अपने शानदार अंतिमसंस्कार समारोह के लिए प्रसिद्ध, टोराजस पैत्तृक पूजा पद्धति को अपनाते हैं, आज भी जहाँ मृत्यु और जीवन के बाद का समारोह, एक विशाल उत्सव है जब अंतिम शव समारोह में भैंसों की बली चढ़ायी जाती है जिसके बाद मृतक के अवशेष एक शवपेटी में रख दिए जाते हैं और एक ऊँची चट्टान पर खोखली गुफा में गाड़ दिए जाते हैं।
परिभाषा
वह संदूक जिसमें लाश रखकर गाड़ी जाती है:"आदमी लाख धनी हो पर मरणोपरान्त उसे ताबूत ही भेंट की जाती है" पर्याय: ताबूत, शवपेटिका, जनाजा, जनाज़ा, कॉफिन,